बच्चों को निशु:ल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार
अधिनियम 2009 में स्थित विसंगतियाँ
1. आय-व्यय :- बजट को एक से दृष्टि देखने से प्रतीत होता है कि बच्चों की निशु:ल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 के क्रियान्वयन के लिये जितना व्यय का प्रावधान किया जाना उचित था वह नहीं हुआ है।
ï प्रथम वर्ष में क्रियान्वयन के लिये 15,000 करोड रूपये की राशि का बजट में आबंटन किया गया है जबकि विद्यालय विभाग तथा साक्षरता के लिए कुल धन रू 31,036 स्वीकृत किया गया है। पांच वर्ष में इस योजना पर 1.71 लाख रुपये व्यय होंगे। स्पष्ट है कि प्रथम वर्ष में व्यय विद्यालयीन शिक्षा के बजट का आधे से भी कम है। आर्थिक अभाव सफलता में अवरोध उपस्थित कर सकता है।
यह सत्य है कि बिहार, उड़ीसा, आसाम और पश्चिम बंगाल ने पिछले वर्षो में सर्वशिक्षा अभियान के लिए दी गई राशि का पूरा व्यय नहीं किया। 10,000 हजार करोड़ की राशि व्यय करने के लिए शेष है। यदि प्रथम वर्ष के लिये स्वीकृत 15000 करोड़ की राशि में रु 1000 करोड़ जोड़ दें तो यह कुल रू 25,000 करोड़ हो जायेगी।
वित मंत्रालय ने इस मद के लिये 3,675 करोड़ की सहायता की है। अब रू 25,000 करोड़ में वित्ता मंत्रालय की सहायता जोड़ दी जाये तो यह सब मिलकर रू 28675 का आंकडा आ जाता है तो 31,036 की बजट राशि से कम है।
ऐसी स्थिति में सात्विक भय और सन्देह होना स्वाभाविक है कि कहीं प्रारम्भ तो वास्तविकताओं से दूर है और इसमें विसंगतियाँ हैं।
ï केन्द्रीय और राज्य सरकारों धन की सांझेदारी में खींचतान की स्थिति में हैं। यह सत्य है कि शिक्षा परवर्ती सूची में है ऐसा होते हुए राज्य सरकारें अपना भाग देने में असमर्थता प्रकट कर रही हैं। बिहार और बंगाल ने अन्देशा प्रकट किया है कि हमें कम से कम 28,000 करोड़ तथा 16,000 करोड रूपये व्यय करना होगा और उनके कथनानुसार यह उनके बलबुते की बात नहीं है। इस असंमजस स्थिति से सरकारें अधिनियम की तैयारी को कैसे ले जाती है? यह अभी देखने की बात है।
ï चिन्ता का विशेष विषय अध्यापकों की नियुक्ति का है। आज के दिन विद्यालयों में प्रशिक्षित, अयोग्य, प्रतिबध्दता विहीन, ठेके के अध्यापकों की बहुतायत है। उनको निकालना उनकी सामूहिक शक्ति के कारण कठिन हो रहा है। संघर्ष की स्थिति के लिये भी तैयार रहने की आवश्यकता है। अधिनियिम की धाराओं के अनुसार ऊपर कथित श्रेणी के अध्यापकों के स्थान पर 6 मास के अन्दर लाखों प्रशिक्षित शिक्षकों को सेवा में लेना आवश्यक होगा। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिये आगे के पाचं वर्षो में प्रशिक्षण कार्य पूर्ण किया जाना है।
इस महत्तवपूर्ण विषय पर केन्द्र, राज्य सरकारें, वित्ता मंत्रालय, योजना आयोग, श्रम मन्त्रालय, महिला और बाल कल्याण आयोग, सामाजिक न्याय, जल स्वच्छता, अधिकरण अनुसूचित जाति कल्याण, पंचायत राज्य, स्थानीय निकाय आदि जब तक शिक्षा के कार्य को राष्ट्रीय दायित्व का कार्य नहीं स्वीकारते और सृजनात्मक सहयोग नहीं देते तो कठिनाईयाँ उपस्थित हो सकती हैं। इन बहुविध आयोगों और संस्थाओं को एकात्मकता के भाव को पुष्ट करने का कार्य किस केन्द्रीय संस्थान का रहेगा? यह अभी अस्पष्ट है। खण्ड-खण्ड में कार्य करने से शिक्षा अखण्ड मण्डलाकार स्वरूप धारण नहीं कर सकती।
ï अधिनियम में 6 से 14 वर्ष के बालकों की निशु:ल्क शिक्षा का प्रावधान है। आयु बालक के विकास की जो नींव का कार्य करती है वह 0 – 6 और 14-18, 18-18 तक निश्चित है। इस अवधि से बालकों को अधिनियम से बाहर रखने से यह तो ठीक है कि व्यय कम रहेगा परन्तु बालक के सर्वा›ीग विकास में यह आयु का प्रावधान खण्डित स्वरूप खड़ा करेगा।
ï अधिनियम में शिक्षा के गुणात्मक विकास के त्रिकोण की बात की गई है। निकट के विद्यालय (Neighbourhood School) में प्रवेश तीन वर्ष में यह कार्य पूर्ण किया जाना है। अध्यापकों के लिये न्यूनतम योग्यता तीस विद्यार्थियों पर एक अध्यापक, संख्या के अनुपात में कमरे लड़के तथा लड़कियों के लिये पृथक शौचालय आदि की सुविधा संसाधन, खेल का मैदान, पुस्तकालय- पीने का पानी आदि विद्यालय के लिये भौतिक संसाधनों को उपलब्ध कराना है। सरकारें इन सुविधाओं को देने के लिए धन के व्यय की बात नहीं कही है कठिनाई उपस्थित होगी।
ï पिछड़े तथा आर्थिक दृष्टि से उपेक्षित बालकों को सभी मान्यता तथा अनुदान प्राप्त विद्यालयों में प्रवेश अनिवार्य रूप से दिया जायेगा।
ï परिपत्र में यह बताया गया है कि ऐसे विद्यालयों की फीस की परिपूर्ति शासन द्वारा की जाएगी। परिपूर्ति के लिये जो आंकलन किया गया है। वह व्यवहारिक नहीं। यह विसंगतियों से भरा है। ऐसा कैसे सम्भव होगा कि छुट स्कीम मापदण्ड एवं उच्च शुल्क होने वाले एवं तदानुसार सर्वसुविधा देने वाले विद्यालय पर लागू किया जाएगा। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्वान्त के विरुध्द है।
ï अधिनियम में कमजोर आर्थिक स्थिति और वंचित वर्ग को स्पष्टत: परिभाषित नहीं किया गया है इससे विद्यालयों को अनेक अनेक आर्थिक परेशानियों का समाना करना पड़ेगा।
ï अधिनियम की धारा 5 में यह वर्णित है कि स्कूल छोड़ने पर विद्यार्थी को अनिवार्य रुप से स्थानांतरण प्रमाण पत्र निर्धारित समय में विद्यालय को देना होगा, ऐसा नहीं होने पर दंडात्मक कार्यवाही की जावेगी। वही दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि यदि कोई विद्यार्थी स्थानांतरण प्रमाण पत्र, पूर्व कक्षा की अंकसूची या जन्म प्रमाण पत्र नहीं देता है तब भी उसको इच्छित कक्षा में प्रवेश देना अनिवार्य होगा। यह दोनों बाते परस्पर विरोधाभासी है और शिक्षा संस्थानों में गंभीर समस्या का कारण बनेगी।
ï अधिनियत की धारा 14 (2) के अंतर्गत स्कूल में प्रवेश के लिये जन्म प्रमाण पत्र की बाध्यता नहीं मानी गई है, इस आधार पर बिना जन्म प्रमाण पत्र के भी बच्चे को प्रवेश माता-पिता की इच्छानुसार चाही गई कक्षा में करना होगा जो कि विद्यालय के लिये समस्या खड़ी करेगा।
ï अधिनियम की धारा 16 के अनुसार किसी भी बच्चे को किसी भी कक्षा में रोका नहीं जायेगा तथा नहीं शाला से बाहर किया जायेगा जब तक की बच्चा प्रारंभिक शिक्षा पूरी नहीं कर लेता। यह विद्यालयों के लिये सर्वथा अव्यवहारिक एवं व्यवस्था के लिये चुनौती पूर्ण होगा क्योंकि कमजोरतम एवं ऐसे बच्चें जिनकी रुचि पढ़ाई में बिल्कुल नहीं है वे पढ़ने वाले बच्चों के लिये तथा विद्यालय के लिये समस्या का सबब नहीं बनेंगे? साथ ही यदि कोई बच्चा प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त नहीं करता है तब भी उसे मनचाही कक्षा में प्रवेश की प्रात्रता होगी। इस बिन्दु से बच्चे का अन्य बच्चों के समान मानसिक एवं बौध्दिक विकास कैसे संभव है? यह विचारणीय है। साथ ही कक्षा में बच्चों की उम्र का अंतराल अव्यवहारिक रूप से बढ़ जावेगा तो अनेकानेक समस्याओं का कारण बनेगा।
ï वर्तमान में भिन्न-भिन्न संस्थाओं का प्रबन्धन में स्थान है जैसे विद्यालय प्रबन्ध समिति, ग्राम सभा, शिक्षा विभाग अब विद्यालय प्रबन्ध समिति में तीन चौथाई अभिभावक रहेंगे तथा अध्यापक प्रतिनिधियों को भी स्थान मिलेगा। शिक्षा विभाग का भी हस्ताक्षेप रहेगा।
ï सांझेदारी, समझदारी तथा जवाबदारी के बिना प्रबन्ध में सुचारूता आना सम्भव नहीं है।
ï कहा गया है कि 6000 माडल सकूल खोले जायेंगे इसमें 35 हजार संस्थाओं के उद्योगपतियों तथा निजी संस्थानों की रहेगी। शिक्षा में निजीकरण तथा व्यापारीकरण को बढ़ावा मिलेगा। यह सभी विद्यालय से छटी से आगे की पढ़ाई करायेंगे। यदि यह अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय होंगे तो मातृभाषा में पढ़कर आये विद्यार्थियों का उन विद्यार्थियों के साथ स्तर कैसे मिलेगा जो सम्भव दिखाई नहीं देता।
ï अधिनियम में कहा गया है यथा सम्भव प्राथमिकशाला की शिक्षा मातृभाषा में होगी। यथा सम्भव शब्द का उल्लेख कर अंग्रेजी के लिये द्वार खोल दिये गये है। सभी शिक्षाविदों में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही है। सभी सन्तुतियों के विरोध में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बनाया जा रहा है।
ï अधिनियम के अन्तराल बच्चों को विद्यालय में प्रवेश दिलाने का दायित्व माता पिता का है। आर्थिक दृष्टि से अपेक्षित माता पिता विद्यालय में बच्चों को आर्थिक सामाजिक परिस्थितयों के कारण से नहीं भेजेगा। बच्चे उनकी रोजी रोटी में सहायता का साधन है। यूनेस्कों की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत बालकों का वजन मानक से कम है 42 प्रतिशत कुपोषण का शिकार है। माता पिता की प्राथमिकता बच्चों के पालन पोषण की है। इस समस्या की ओर अधिनियम का ध्यान नहीं गया है।
ï सभी विद्यार्थी विद्यालय में पहुँचे उसके लिये उन्हें चिह्नित करनी की आवश्यकता है। यह दायित्व किसका है? त्यक्त विद्यार्थी, बन्धक लड़के, ढ़ाबा और फैक्टरियों में काम करने वाले ऐसे लड़के जिनको विद्यालय में आना चाहिए, 3 करोड़ से अधिक हैं। कौन लायेगा इनको विद्यालयों में ? राष्ट्रीय दायित्व के इस कार्य के लिये समाज प्रबोधन की आवश्यकता है। कौन करे यह प्रश्न उत्तार मांगता है, लाख 1.86 हजार बाल श्रम जीवी है शेष 70934 अन्य क्षेत्र में श्रम करते है।
ï घरों में चल रहे विद्यालय जिन विद्यालयों को मान्यता नहीं है। एकल विद्यालय, संस्कार केन्द्र इनके सम्बन्ध में अधिनियम मौन इन में शिक्षा ग्रहण करने वालाें बालकों का ओर अध्यापकों का भविष्य अन्धकार में है।
विविध
शिक्षा के अधिकार कानून को केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने शिक्षा क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम बताया है।
इस कानून के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित है
ï आठवीं कक्षा तक कोई भी बोर्ड की परीक्षा नहीं होगी। 14 वर्ष आयु की अवधि में किसी भी बालक को किसी कक्षा में दूसरे वर्ष के लिये उसी कक्षा में पढ़ने के लिये बाधित नहीं किया जायेगा और न ही उसे विद्यालय सें निष्कासित किया जायेगा।
ï आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले प्रत्येक विद्यार्थी को प्रमाण पत्र प्रदान किया जायेगा।
2. अध्यापकों को आबादी की मतगणना कार्य के अतिरिक्त किसी भी कार्य में नहीं लगाया जायेगा।
ï अध्यापकों को टयूशन करने के लिये मना किया गया है। शारीरिक दण्ड देना अपराध स्वीकार किया गया है।
4. बिल की समीक्षा :
ï उच्चतम न्यायालय ने 1993 के उन्नीकृष्णनन ऐतिहासिक निर्णय में कहा है कि 14 वर्ष की आयु को पूर्ण करने तक हर बालक/बालिका का नि:शुल्क तथा अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार है। इसमें 6 वर्ष से नीचे के विद्यार्थियों का भी समावेश किया गया है।
- 2009 के कानून के लागू होने पर 6 वर्ष की आयु से नीचे बच्चे जिन की संख्या 17 करोड़ है उनके लिये पोषक आहार, स्वास्थ्य संरक्षण और शिशु शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित ही रहेंगे।
- 19 करोड बच्चे जो 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के अन्दर आते है उनको शिक्षा उस ढंग से प्रदान की जायेगी जैसे राज्य सरकारें उचित समझेगी।
ï इस काननू में तीन प्रमुख न्यूनताएँ है।
- · संविधान की धारओं के आधार पर सभी छात्रों को समान रूप से गुणवता तथा अच्छी शिक्षा प्रदान करने की कानून में निश्चित नहीं है।
- · सरकारी विद्यालय समाप्त होंगे। 2009 के शिक्षा का अधिकार को विशेष श्रेणी के विद्यालयों जैसे केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और निजी तथा सरकार की सांझादारी से 6000 नये आर्दश विद्यालयों की स्थापना यह सब विशेष विद्यालय है और विशेष विद्यार्थी ही इसमें पढ़ेगें। अत: बालक अच्छी शिक्षा से वंचित ही किया गया है।
- · शिक्षा में निजीकरण तथा व्यापारीकरण को बढ़ावा मिलेगा। इन तीन प्रमुख आपतियों के अतिरिक्त 2009 के बिल में अनेक आपतिजनक प्रावधानों की आलोचना की जा रही है
ï केपीटेशन फीस तथा दान की व्याख्या तो की गई है। शुल्क के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया। प्राईवेट संस्थाओं के व्यापारीकरण में वृध्दि होगी।
ï राजकीय प्राईवेट संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रों की गुणात्मक शिक्षा में असमानता तथा असुंतलन बना रहेगा।
ï संविधान की धारा 350 ए जिस में बालको मातृभाषा में पढ़ने का अधिकार दिया गया है। उसे नये कानून में यह अधिकार प्राप्त नहीं होगा।
ï विद्यालयों में 10 प्रतिषत पद रिक्त रखने की अनुमति है। छोटे विद्यालयों तो अधिकतर खाली ही खाली दिखाई देगें। एकल विद्यालयों तो बंद ही हो जायेंगे।
श्री सिब्बल जी ने संसद में कहा है कि यह बिल ऐतिहासिक हैं। शिक्षा में गुणवता, समाजिक समरसता तथा समानता लायेगा। आलोचना की जा रही है और यह किसी सीमा तक ठीक भी है कि वर्तमान विद्यालयों की स्थिति उनके संसाधनों की ओर ध्यान दिये बिना शीध्रता में बिल लाकर हम मछली तो पकड़ना चाहते हैं लेकिन डंडू हाथ में आयेगा।
1- पहली कक्षा में 80 प्रतिशत प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी 9 वर्ष की आयु तक पहुँचने पर केवल 56 प्रतिशत रह जाते है।
2- इन में से आधे बच्चे 8 वीं कक्षा तक पहुँच पढ़ाई पूर्ण कर लेते है।
3- 10 प्रतिशत विद्यार्थी आगे चलकर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की परीक्षा उतीर्ण करते है।
4- अनुसूचित तथा अनुसूचित जनजातियों की लड़कियाँ प्रवेश के समय 80 प्रतिशत होती है और वह दसवीं की परीक्षा पूर्ण करने से पहले ही विद्यालय त्याग देती है।
5- नेशनल सैम्पल सर्वेक्षण के आधार पर
- 30 प्रतिशत विद्यालयों के ठीक से भवन नहीं हैं।
- स्वच्छ पानी पीने की व्यवस्था लड़कियों के लिये नहीं, पृथक से शौचालय नहीं है।
- 20 प्रतिशत विद्यालयों में केवल एक ही कमरा है। अर्थात उनमें एक ही अघ्यापक है।
- 10 प्रतिशत विद्यालयों में श्याम पट भी नहीं है।
ऐसी स्थिति में नये कानून बनाना बेकार हो जायेगे यदि विद्यालयों की शोचनीय स्थिति में सुधार नहीं लाया गया। अत: प्रथम वरीयता के कार्य प्रथम करें।